तेनालीराम निर्भय और सत्यवादी था। वह जहां भी अन्याय और अत्याचार देखता उसका भण्डा फोड़ने में जरा भी संकोच नहीं करता था, चाहे राजा हो या रंक, गरीब हो या धनवान। नारी हो या पुरुष । यहां तक कि अपने आश्रयदाता सम्राट कृष्णदेव राय की भी मौके पर आलोचना करने से चूकता न था। पर उसकी आलोचना हास्य और व्यंग्य से भरी होती थी । उसका व्यंग्य सुनकर सामने वाला व्यक्ति तिलमिला उठता था और सोचने और समझने के लिए बाध्य हो जाता था। इस प्रकार अपनी भूल को सुधार लेता था । इसलिए कभी कोई व्यक्ति भूल करने के पहले तेनालीराम से बचने की कोशिश करता था। यही कारण है कि राज्य के मामलों में राजा तेनालीराम की सलाह लिया करते थे। उनको बहुत मानते थे ।
एक दिन सायंकाल सभा समाप्त होने के बाद राजा तेनालीराम को साथ लिये उद्यान में टहलने निकले। ठण्डी हवा बह रही थी। संध्या कालीन सूर्य की सुनहली किरणों से उद्यान की शोभा में चार चांद लग रहा था। राजा रंग-बिरंगे फूल और प्रकृति के सौंदर्य को देखते मुग्ध हो रहे थे। प्रकृति की शोभा का वर्णन करते जा रहे थे, लेकिन तेनालीराम इस पर ध्यान दिये बिना पेड़ से लटकते एक सोने के पिंजड़े में बंद सुग्गे की ओर एकटक देख रहा था।
राजा ने उसके समीप जाकर गर्व से कहा- “तेनालीराम । मेरी छोटी रानी चिन्ना देवी का पालतू सुग्गा (एक प्रकार का पक्षी) है। उनके लिये यह सुग्गा बहुत ही प्यारा है। इसलिए मैंने इसके लिए सोने का पिंजड़ा बनवा लिया है। बताओ, यह तुम्हें कैसा लगता है ? इस सुग्गे का भाग्य देखो ।”
“प्रभु ! मुझे तो इस सुग्गे पर दया आती है-” तेनालीराम ने कहा ।
“दया क्यों ? यह तो राज-सुख भोगता है। इसे किस बात की कमी है ?”
“महाराज ! चाहे जितनी भी संपदाएं और सुख क्यों न प्राप्त हों। मेरे विचार से बिना स्वेच्छा की जिन्दगी बेकार है। उधर देखिये पक्षी आसमान में आजादी के तराने गाते कैसे उड़ रहे हैं। उनका कुँजन सुन कर पिंजड़े में बंद यह पक्षी किस प्रकार अपने बन्दी जीवन का एहसास करता है। उसके पंख उड़ने के लिए फड़फड़ाते हैं, लेकिन यह अपनी असहायता पर कैसे सर पटक कर पिंजड़े के तारों को नोच रहा है। ये सारे राजभोग इसके लिए किस काम के ? जब कि यह जिंदगी की सबसे बड़ी आकांक्षा आजादी से वंचित है। अब आप ही बताइए कि मैं इस पक्षी की लाचारी पर तरस न खाऊं तो करूँ क्या ?”
“तेनालीराम, तुम यहीं पर भूल करते हो। समझने की कोशिश करो जो पक्षी स्वेच्छापूर्वक आकाश में उड़ते रहते हैं, उन्हें हमेशा शिकारियों, चील, श्येन आदि का डर बना रहता है। यह सुग्गा एकदम सुरक्षित है। इसे आहार की खोज में कहीं नहीं जाना पड़ता। आराम से बढ़िया आहार मिलता है। सर्दी, गर्मी और बारिश से बच सकता है। तुम पागल जैसे बात करते हो सुख-वैभव पक्षियों के लिए क्या मानव समाज में कितनों को प्राप्त है।”-राजा ने पक्षी के प्रति अपना उपकार जताते दर्प से कहा ।
“महाराज, यदि आप बुरा न माने तो सच बता दूँ ! आपकी और इस सुग्गे की स्थिति में कोई बड़ा अन्तर नहीं है। अंतःपुर एक कारागार जैसा है । इसलिए आपको सुग्गे की हालत पर दया नहीं आती है” तेनालीराम ने अपने मन की बात कह दी।
“तेनालीराम ! तुम अपनी सीमा से बाहर जाकर बात करते हो । मैंने तुम्हारा आदर किया तो तुम मेरे ही सर चढ़ गये हो। हमारी ही अवहेलना करते हो ? जाओ, आज से तुम मुझे अपना चेहरा मत दिखाओ।” यह कह कर राजा जल्दी जल्दी कदम बढ़ाते अंतःपुर की ओर बढ़े। बेचारा तेनालीराम अपना सा मुँह लेकर वहां से धीरे से चल पड़ा- यह सोचते हुए कि यह भी कैसी दुनियां है, सच कह दूँ तो बुरा मानती है।
राजा अंतःपुर पहुँचे । रात को बिस्तर पर लेट गये, पर उन्हें नींद नहीं आई। तेनालीराम की बातें बराबर उनके कानों में गूंजने लगीं-राजा और पक्षी की हालत में कोई बड़ा अंतर नहीं है। तेनालीराम ने ठीक ही कहा था।’ रात भर राजा करवटें बदलते रहे, पर आँखों में नींद हराम । बड़े सवेरे कहीं जाकर उनकी आँखे लगी ।
उघर तेनालीराम भी सो नहीं पाया। वह पछताने लगा- ‘मैने नाहक राजा का मन दुखाया है।’ पर उनका मुँह देखे बिना तेनालीराम को चैन नहीं पड़ती थी। वह महाराजा का अंतरंग सखा था, पर वह राजा को अपना चेहरा नहीं दिखा सकता था। यह राजा का आदेश था, इसलिए उसने एक उपाय किया । अपने सिर पर आँधे मुँह बर्तन रख कर सवेरे राजमहल में पहुँचा। उस विचित्र आकृति को देख राजमहल में हलचल मच गई। वह कोलाहल सुनकर राजा वहां पर आ पहुँचे। उस विचित्र वेषधारी को महल से बाहर कर देने का राजा ने आदेश दिया।
“प्रभु ! क्षमा करें, मैं तेनालीराम हूँ।”
“क्यों आये हमारे महल में ?” राजा ने क्रोध का स्वांग रचते हुए पूछा ।
“महाराज, आप मुझको देखे बिना रह सकते हैं, परन्तु मैं आपको देखे बिना नहीं रह सकता । इसीलिए इस छद्मवेश में आपके सामने हाजिर हूँ।” तेनालीराम का कंठ गदगद हो उठा।
“तुम अपना छद्म वेश हटा दो।”
“प्रभु ! आप सुग्गे को पिंजड़े से मुक्त कर दें तभी मैं अपना यह वेश हटा दूँगा। राजा ने तेनालीराम की बात मान ली ।
तेनालीराम ने अपना वेश हटाया। महाराज ने अत्यंत नेह भाव से तेनालीराम को अपने गले लगाया और बोले- “तेनालीराम। तुमने पिंजड़े में बंद सुग्गे की भांति हमारी स्थिति का बोध कराया है। हम तुम पर बहुत ही प्रसन्न हैं। उपहार के रूप में यह रत्न हार स्वीकार करो।” यह कर कर महाराज ने अपने कंठ का रत्न हार उतार कर तेनालीराम के हाथ घर दिया।
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