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घड़ियों की हड़ताल (Chapter-7)

By KahaniVala

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-( रमेश थानवी ) Ramesh Thanvi

Hindi Sahitya me Khaniyon ka Bada mehhatav hai , hindi kahaniyaan bachhon ke mansik vikas ke liye ek unnat or jacha parkha madhyam hai,Yahan Par hmare dwara देश में प्रौढ़ शिक्षा का अलख जगाने वालों में अग्रणी, साहित्य और दर्शन के अध्येता, एक दौर के प्रतिष्ठित साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ की टीम के सदस्य और राज. प्रौढ़ शिक्षण समिति के अध्यक्ष रहे “श्री रमेश थानवी” ki ek kahani “घड़ियों की हड़ताल (Chapter-7)” prastut ki gayi hai jo prathmik istar ke bachhon ke liye upyukt hai . Yahan par har kahani ka likhit evam maukhik sansakran uplabdh hai , jisse har ek bacchon ko kahani padhne evam samjhne me asani ho or kahani ka anand liya ja sake.

अध्याय 7

घड़ियाँ बंद हुई तो स्कूल के हाजिरी रजिस्टर भी बंद हो गए। बच्चे देर से आएँ तो किसी को शिकायत नहीं थी। हैड मास्टर जी भी हैरत में थे कि जो बच्चे हमेशा पढ़ने से मुँह चुराते थे. वे भी पूरे उत्साह से पढ़ने लगे हैं। जो बच्चे सहमे सहमे व उदास रहते थे, उनके चेहरों पर नयी चमक आ गई है और वे उछलते कूदते अपनी पढ़ाई का अभ्यास कर लेते हैं। हैड मास्टर जी के लिए यह भी आश्चर्य की बात थी कि जो मास्टर कभी भी पढ़ाने में रुचि नहीं लेते वे भी बच्चों के साथ खेलने कूदने लगे हैं और खेल ही खेल में सारे पाठ पढ़ा जाते हैं। ऐसे सभी अध्यापक खुश नजर आने लगे थे, जो किसी-न-किसी मनमुटाव के कारण मुँह फुलाए फिरते थे। वे अध्यापक जो हमेशा बिना मन के स्कूल आते थे और अनमने भाव से स्कूल में समय काटकर चले जाते थे, अब स्कूल के हर काम में पूरी रुचि लेते हैं। बच्चों और अध्यापकों में दोस्ती गहरी हो रही है।

स्कूल के वातावरण में दिनों-दिन प्रसन्नता जितनी बढ़ती है, हैड मास्टर जी की हैरत भी उतनी ही बढ़ती जा रही है। मास्टर जी के साथ डिप्टी इस्पेक्टर भी हैरान हैं। उनको हैरानी य है कि उनके पास इतने लंबे समय से कोई शिकायत नहीं पहुंची है। शिकायतें बंद हुई तो सिफारिशें भी बंद हुई। शिकायतों और सिफारिशों, के बंद होने से दफ़्तर का वातावरण शांत था। दुखी मास्टरों का तांता थमा हुआ था। अफसर लोग गपशप का समय निकाल लेते थे। एक दिन इंस्पेक्टर साहब और डिप्टी साहब चाय पर बैठकर बात, कर रहे थे-

“स्कूलों से कई दिन से कोई शिकायत क्यों नहीं आई हैं? जिससे भी पूछा है, उसी ने तारीफ़ करते हुए कहा है कि स्कूल हो आश्रम हो गए हैं। सभी कुछ सुचारु रूप से चल रहा है। आपने इस

परिवर्तन का कोई कारण पाया क्या?” उत्तर मिला” नहीं साहब! कारण नहीं मिला, लेकिन यह परिवर्तन घड़ियों की हड़ताल के बाद ही आया है। “

“घड़ियों के रुक जाने से मौज मनानेवालों की मंडली बढ़ती तो कुछ समझ में आता। यहाँ तो काम की रफ़्तार बढ़ी है। छुट्टी मनाने वाला मूड या ड्यूटी गोल करने का मूड तो स्कूलों से जैसे रफूचक्कर हो गया है। लगता है, बात कुछ और है। मैं चाहूँगा कि आप एक बार किसी स्कूल का दौरा कर आएँ और मालूम करें। “

इस्पेक्टर साहब की बात अपने में सरकारी आज्ञा थी। इसका पालन हुआ। डिप्टी साहब दौरे पर चल दिए। प्रगति के कारण का 11 12 पता लगाने चल दिए।

डिप्टी साहब बिना किसी खबर के स्कूल में पहुंचे थे, लेकिन सब कुछ व्यवस्थित था, काम चल रहा था। उनके पहुंचते ही हड़बड़ाहट हुआ करती थी। उनके आने की खबर सुनते ही तैयारी शुरू हो जाती थी। बच्चों को बताया जाता था कि इंस्पेक्शन होनेवाला है। इस बार ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। डिप्टी साहब का आश्चर्य और भी बढ़ गया। उन्होंने हैड मास्टर जी से अपने दौरे का उद्देश्य बताया। हैड मास्टर जी भी हैरान थे जवाब क्या देते हैड मास्टर जी ने सुझाव दिया कि स्टाफ की सभा बुलाई जाए। सुझाव का स्वागत हुआ। सभा बुला ली गई। सभा में डिप्टी ने वही सवाल पूछा, “ऐसी शांति, सहयोग और प्रगति क्यों?”

डिप्टी साहब का सवाल सभा में तैर रहा था, लेकिन सभी चुप थे। स्कूल के मास्टर जवाब जानते थे, लेकिन एक नए सवाल में उलझे थे प्रगति की जाँच की जरूरत? जब प्रगति ठप हो गई थी. तब किसी ने क्यों नहीं पूछा कि काम उप क्यों है? ऐसा सवाल कई मास्टरों के मन में कुलबुला रहा था कि डिप्टी साहब ने एक मास्टर जी से जवाब देने को कहा। मास्टर जी सकपकाए, लेकिन जवाब हाजिर था। वे कहने लगे-

“ऐसे सुखद परिवर्तन का श्रेय तो घड़ियों की हड़ताल को है साब घड़ियाँ बंद हुई, तो बच्चे समय के आतंक से आजाद हुए। लेटलतीफ़ों की सजा बंद हुई, उनकी आदत बदली। स्कूल को घंटों के बँटवारे से मुक्ति मिली। बँटवारा बहुत बुरी चीज है। प्रार्थना, पढ़ाई और खेल का भी घंटों में बँट जाना तो और भी बुरा है।”

बोलते-बोलते मास्टर जी को लगा कि वे कोई ऐसी बात कह रहे हैं, जो बड़े साहब के दफ्तर को बुरी लग सकती है। मास्टर जी स्वभाव से बहुत विनम्र थे इसलिए पहले ही क्षमा चाहने लगे। उन्होंने क्षमा चाहते हुए पूछा, “कहीं कुछ बुरा तो नहीं लगा ना माफ़ कीजिएगा, अगर मेरी कोई बात कड़वी लगे तो आप अनुमति दें…”

“आप बेधड़क सारी बात साफ़-साफ़ बताइए। इसमें संकोच कैसा!” डिप्टी साहब बोले। मास्टर जी बयान कर रहे थे-

“बँटवारे की बात कह रहा था साब हमारे स्कूलों में तो प्रार्थना’ का भी घंटा होता है और खेल का भी घंटा उद्योग का भी घटा होता है और श्रमदान का भी घंटा। दरअसल न तो घंटी बजाकर प्रार्थना का हुक्म दिया जा सकता है और न खेल का ही हम हैरान थे कि प्रार्थना और खेल का घंटा क्यों होता है, लेकिन पिछले दिनों तो श्रमदान और नैतिक शिक्षा के घंटे भी घंटों की लिस्ट पर चिपक गए। यह हमारी समझ से तो बाहर की चीज है कि बिजली की मशीन की तरह आप जो बटन दबाएँ, वहीं काम होने लगे। दान-दक्षिणा, नाम-धाम तो वैसे ही किसी के हुक्म से नहीं होते फिर छोटे-छोटे कोमल बच्चे मशीन का बटन दबाते ही प्रार्थना, श्रमदान या खेलना शुरू कर देंगे, यह सोचना तो समझदारी नहीं हुई, लेकिन सरकारी हुक्म था. तो ऐसा होता रहा। मास्टर भी ऐसा करते रहे और बच्चे भी बिना मन ऐसा करने को विवश थे। जब से घड़ियाँ रुकी हैं. तभी से बच्चे घंटों के इस बँटवारे से बचे हैं। तभी से बच्चे थोड़ा उन्मुक्त महसूस करने लगे हैं और तभी से खुशियाँ लौटी हैं। खुशियों के साथ उनकी पढ़ाई भी लौटी है।

मास्टर जी शायद आगे भी कुछ कहते, लेकिन बीच में ही डिप्टी साहब ने पूछा, “तो मास्टर जी! आप क्या अलग विषयों के घंटे भी जरूरी नहीं समझते हैं?” डिप्टी साहब के इस सवाल का जवाब भी हाजिर था। वे बोले-

” अभी जिस तरह घंटों में बाँटकर विषय पढ़ाए जाते हैं, वह तो गैरजरूरी ही है। हमें यह हक किसने दिया कि हम यह तय करें कि फलों क्लास के बच्चे फलों समय फलाँ विषय पढ़ेंगे। पढ़ाई बच्चों को करनी है। उनकी रुचि का ध्यान रखना भी तो जरूरी है। फिर यह भी जरूरी नहीं है कि सभी बच्चे एक ही समय एक ही रुचि रखते हों। बच्चों को रुचियों का ऐसा स्कूलीकरण कैसे सही कहा जा सकता है? विषयों की सही समझ उस समय आएगी. जब बच्चों को पूरी स्वतंत्रता देकर उस विषय विशेष में उसकी रुचि पैदा करके उसे सोखने में उसकी सही मदद की जाएगी। जब से घंटों का बंधन टूटा है, यही संभव होने लगा है। जब जिस लड़के को जो कुछ समझना है, वह खुद आता है, सवाल पूछता है। अपनी मर्जी से जब जो पढ़ना चाहे पढ़ता है। यह दूसरा कारण है प्रगति का स्कूल की खुशी का।’

डिप्टी साहब मास्टर जी की बात से प्रभावित थे, उन्हें सारी बात समझ में आ रही थी। उन्हें लगा कि मास्टर जी को शायद कोई तीसरा कारण भी पता है। उन्होंने पूछा, “तो कोई तीसरा कारण भी आप जानते हैं क्या?” मास्टर जी के पास तीसरा कारण भी तैयार था। वे बोले-

“तीसरा कारण मास्टरों की आजादी है घड़ियाँ जब से रुकी हैं. हाजिरी रजिस्टर बंद हुए हैं। इससे पहले दस-पंद्रह मिनट की देरी होने पर मास्टरों के नाम के आगे हैंड मास्टर जी लाल निशान लगाते फिर दिन में उनकी पेशी होती थी। उससे बात उलझती थी। गाँठे पडती थीं। यही गाँठे स्कूल की प्रगति में बाधक थीं और यही गाँठे स्कूल में मनमुटाव की ऐसी गाँठें.. और भी गँठीली होती थीं, जब मास्टर की पेशी बच्चों के सामने चर्चा की बात बनती थी। इसी से मास्टर का उत्साह मारा जाता था। समय पर पहुँचना और पेशी से बचने का डर हर समय उस पर सवार रहता था। अब जब से उस डर से मुक्ति मिली है और मास्टर को आजादी मिली है, तभी से प्रगति लौट आई है। उस्ताद की आजादी का सवाल भी तो उतना ही बड़ा था सा

डिप्टी साहब को सारी बात समझ में आई। बच्चों की आजादी की बात भी समझ में आई। उस्ताद की आजादी की बात भी समझ में आई। उन्हें समझ में आया कि सही आजादी आए तो प्रगति अपने आप आती है। उन्हें यह भी समझ में आया कि सही आजावो आए तो आपसी झगड़े खुद-ब-खुद खत्म हो जाते हैं।

डिप्टी साहब सारी बात समझकर बड़े हैरान थे। यही हैरानी साथ लिए वे बड़े साहब के बड़े दफ्तर गए। हैड मास्टर साहब की हैरत भी मिटी उन्हें समझ में आया कि आजादी कितनी अच्छी होती हैं) और समय का बच्चों और मास्टरों पर सवार होना कितना बुरा होता है!

घड़ियों की हड़ताल के सभी भाग यहाँ देखें !

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