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घड़ियों की हड़ताल (Chapter-6)

By KahaniVala

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-( रमेश थानवी ) Ramesh Thanvi

Hindi Sahitya me Khaniyon ka Bada mehhatav hai , hindi kahaniyaan bachhon ke mansik vikas ke liye ek unnat or jacha parkha madhyam hai,Yahan Par hmare dwara देश में प्रौढ़ शिक्षा का अलख जगाने वालों में अग्रणी, साहित्य और दर्शन के अध्येता, एक दौर के प्रतिष्ठित साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ की टीम के सदस्य और राज. प्रौढ़ शिक्षण समिति के अध्यक्ष रहे “श्री रमेश थानवी” ki ek kahani “घड़ियों की हड़ताल (Chapter-6)” prastut ki gayi hai jo prathmik istar ke bachhon ke liye upyukt hai . Yahan par har kahani ka likhit evam maukhik sansakran uplabdh hai , jisse har ek bacchon ko kahani padhne evam samjhne me asani ho or kahani ka anand liya ja sake.

अध्याय 6

सभी शहरों से आए घड़ीसाज राजधानी में टिके हुए थे। बयान समय- भवन में चल रहे थे। घड़ियों की हड़ताल खुलने के मगर कोई आसार नहीं दीखते थे। घड़ियों को बंद हुए चूंकि कई दिन हो गए थे, इसलिए राजधानी की हवा में एक खास तरह का तनाव छा गया था। सड़कों, चौराहों और बसों के चलने व रुकने का सारा नक्शा ही बदल गया था।

समय एक अर्से से नदारद था। इसलिए समय से लोगों को परिचित रखने के लिए नए तरीके निकाले जा चुके थे। सरकार के समय सूचना विभाग की तरफ़ से समय बताने के लिए विशेष इंतजाम किए गए थे। यह समय सूचना विभाग घड़ियों की हड़ताल की देन था। एक नया महकमा खुला था। सरकार को भी समय बड़ा बलवान लगा था और इस महकमे के लिए सारे स्रोत खोल दिए गए थे। महकमा पनपने लगा था। घड़ियों की हड़ताल ने कइयों के दिन फेरे थे। सरकारी महकमों में एक स्वभावगत होड़ व ईष्यां चलती रहती है। इसी ईर्ष्या ने समय-भवन के निर्माण की माँग रखी थी। माँग मान ली गई थी, क्योंकि महकमा महत्त्वपूर्ण था। अब दिल्ली में वायु- भवन, कृषि भवन, उद्योग भवन व रेल भवन की कतार में समय भवन भी खड़ा हो गया था।

जब से समय भवन बना था, एक नयी राजनीतिक माँग भी बलवती हुई थी। राजनेताओं ने माँग की थी कि एक समय मंत्री भी नियुक्त होना चाहिए। माँग वाजिब लगी थी, लेकिन समय-मंत्री केवल उसे बनाया जाना चाहिए था, जो समय की एकता का राज जानता हो, जो सही समय को पहचानता हो, जो खोए समय को लौटा ला सकता हो, जनता को सही समय बाँट सकता हो तथा जो घड़ियों की हड़ताल तुड़वा सकता हो। इतना समर्थ मंत्री तो मिलना मुश्किल लग रहा था, लेकिन किसी तरह एक मंत्री चुन लिया गया था।

समय-मंत्री ने आते ही घोषणा की कि वे घड़ियों की हड़ताल को फौरन तुड़वाएँगे तथा राष्ट्र के सही समय को लौटा लाने का जी-तोड़ प्रयास करेंगे। उन्होंने यह भी घोषणा की थी कि लोगों की विशेष सुविधा के लिए बिना राशन सही समय बाँटने के सभी इंतजाम कर दिए गए हैं। घोषणा सही थी। समय बाँटा जा रहा था।

हर सड़क पर लगभग एक-डेढ़ मील की दूरी पर तंबू तान दिए गए थे। तंबुओं में टेलीफोन से समय की सूचना आती रहती थी और यहाँ बैठा बाबू पूरी उदारता के साथ समय बाँटता था हर बार एक ही सवाल का जवाब देता था- “बाबूजी! क्या बजा है?’ समय की सूचना यहाँ समय विभाग से आती थी और इस विभाग ने आकाशवाणी में कुछ ऐसा प्रबंध किया था कि बी.बी.सी. लंदन से समय की सूचना लगातार मिलती रहती थी। हड़ताल चूंकि देशव्यापी थी, इसलिए समूचे देश की सुविधा के लिए आकाशवाणी से हर एक घंटे बाद यह सुना जा सकता था ये आकाशवाणी है। इस समय बी.बी.सी. के अनुसार रात के इतने बजे हैं। इसलिए भारतीय समय के अनुसार दिन के इतने बजे हैं।’

सरकारी समय सूचना विभाग की इस व्यवस्था से लोगों को काफ़ी सुविधा हो गई थी। यह समय सूचना विभाग बिल्कुल नया विभाग है। इसलिए अभी पूरी फुर्ती से काम करता है। इस विभाग में इधर जितने नए लोग रखे गए हैं, वे सब घड़ियों की हड़ताल को मन ही मन धन्यवाद देते हैं। इस अवसर पर ही नौकरी लगे बाबू सोच रहे थे कि ‘समय पर ध्यान रखना तो सरकार के लिए पहला काम हो गया है। इसलिए यह महकमा अब कभी बंद होने का नहीं।’

इधर इस तरह से समय की जानकारी मिलने पर बड़े-बुजुगों के दिमागों में ब्रिटिश राज की याद ताजा हो गई थी। उनको विदेशी चीजों की प्रशंसा करने का एक और तर्क मिल गया था। आकाशवाणी से समय की सूचना सुनकर एक बूढ़ा कारीगर कह रहा था. अब आखिर तो टैम भी विलायत से मँगाना पड़ा याकि नहीं? अरे, हमने तो पहले ही कहा था कि जो टेम गोरों के साथ चला गया, वह जब तक वापस नहीं आता, तब तक गुजारा नहीं चलेगा।’

बूढ़ा कारीगर अपने तर्क को मजबूत करता हुआ आगे कह रहा था-“देखो बाबू! देशी और विदेशी टेम में भी रात-दिन का फ़र्क है।’

यह तो सीधे-सादे आदमी की बात थी। उधर जो लोग विदेशी चीजों के इस्तेमाल में अपनी शान समझते थे, उन्हें भी मजा आ गया था। वे कहते फिरते थे कि अब तो समय भी ‘इंपोर्टेड’ है। वे सोचने लगे थे कि अब ‘इंडियन टाइम नहीं रहा, इसलिए शायद हिंदुस्तानी कुछ ज्यादा पंक्चुअल’ हो जाएँगे।

इधर समय जानने के लिए देशी तरीके भी ढूंढ निकाले गए थे। जंतर-मंतर की धूप घड़ियों के मिटे अंकों को वापस उकेरा गया था। इसी धूप घड़ी के हिसाब से दिल्ली के रीगल बस स्टॉप की बसें चलने लगी थी। मद्रास होटल के बस स्टॉपवालों ने भी ऐसा ही प्रबंध किया था। लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज के हॉस्टल के दरवाजे के ऊपर लगी धूप घड़ी के समय से बसें चलने लगी थीं। जंतर-मंतर की धूप घड़ी पर समय जाननेवालों का ताँता हर वक्त लगा रहता था। इधर लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज के हॉस्टल के सामने भी हर वक्त समय जाननेवालों की भीड़ लगी रहती थी। कुछ लोग फिर से अपनी घड़ियाँ मिलाते हुए भी देखे जा सकते थे, लेकिन घड़ियाँ लाख मिलाए भी नहीं मिलती थीं। चलने का नाम ही नहीं ले रही थीं। तंबुओं में बैठे बाबू दिनभर समय बाँट रहे थे।

धूप घड़ी का चलन काफ़ी बढ़ गया था। कई लोगों ने अपनी छतों पर धूप घड़ियाँ लगाई थीं। मगर इनसे उतना सही समय मालूम नहीं होता था, जितना कि जंतर-मंतर की धूप घड़ी से विज्ञान और तकनीकी मंत्रालय ने भी यह फ़ैसला किया था कि वैज्ञानिकों और ज्योतिषियों की एक टीम जयपुर जाएगी। वह टीम पता लगाएगी कि… महाराज जयसिंह हिंदुस्तान में और कहाँ कहाँ जंतर-मंतर बनाना चाहते थे? धूप घड़ियाँ खड़ी करने का उनका फार्मूला क्या था? मंत्रालय ने आदेश जारी कर दिए थे। टीम जयपुर को चल पड़ी थी।

केवल धूप-घड़ियों के दिन ही नहीं फिरे थे, इनके साथ साथ रेत घड़ियों के प्रचलन को भी प्रोत्साहन दिया गया था। अस्पतालों में हर पलंग के सिरहाने एक छोटी रेत घड़ी फिट कर दी गई थी जो कि नब्ज़ देखने में नसों की मदद करती थी। स्कूलों का हर मास्टर अपनी कमर पर रेत घड़ी लटकाए फिरता था। जब मास्टर जी क्लास में पहुँचते तो सामने रखी मेज पर रेत घड़ी को औंधा कर देते थे। मास्टर जी को गिरती रेत दूर से ही दिख जाती थी। मेज पर रखी घड़ी की गिरती रेत पर सारे लड़कों की नजरें टिकी रहती थी। सबका ध्यान रेत पर रहता था, इस बात पर रहता था कि रेत के खत्म होते ही क्लास भी खत्म होनी है। मास्टर जी के लिए आराम हो गया था। उन्हें भी समय का पता स्वतः चलता रहता था। बार-बार हाथ उठाकर घड़ी नहीं देखनी पड़ती थी। यह इंतजार नहीं करना पड़ता था कि घंटी कम बजेगी, लेकिन कुछ मास्टर ऐसे भी थे, जो आदतन लाचार थे। हाथ पर घड़ी नहीं, फिर भी हाथ ऊँचा करके समय देखना चाहते थे। जैसे ही हाथ ऊँचा उठता था, क्लास एक जोरदार ठहाके से गूंज उठती थी मास्टर जी झेंप जाते थे। एक लंबी साँस छोड़कर कहते थे, “पता नहीं यह घड़ियों की हड़ताल भी कब खुलेगी!”

जब कभी कोई मास्टर जी ऐसी आह भरते याकि अपनी रेल-घड़ी क्लास में लाना भूल जाते तो छोटू-मोटू को फिर कोई नयी कारस्तानी सूझती। इधर जब से घड़ियाँ हड़ताल पर बैठी हैं, तब से कारस्तानियों कम हो गई हैं। मगर छोटू मोटू के चेहरे पर एक नयी चमक आ गई है। शरीर में नयी फुरती आ गई है। घड़ियों के बद होने के साथ ही उनकी खिंचाई भी बंद हो गई है। उनकी पूरी पलटन इधर-उधर फिरती है। स्कूल के सारे मास्टरों की कमर पर लटकी रेत-घड़ियाँ छोटू मोटू को और भी मजा देती हैं।

खिंचाई बंद होने के बाद मोटू कुछ मुटा गया है। पूरा गोलगप्पा लगने लगा है। छोटू भी लाल-लाल हो गया है, टमाटर जैसा। दोनों भाइयों के लिए पढ़ाई, स्कूल का काम, गणित के सवाल सभी कुछ एक चुटकी का काम हो गया है। याददाश्त भी जैसे किसी ने शान पर चढ़ा दी हो। बस एक बार कोई पाठ सुना तो सारा का सारा कंठस्थ खोटू जो अब तक हमेशा पढ़ाई में पिछड़ा हुआ रहा है तथा परीक्षा शुरू होते ही हनुमान जी को नारियल चढ़ाने की सोचता रहा है, उसका भी नंबर अब आगे रहता है। स्कूल के मास्टर ताज्जुब करते हैं कि यह चमत्कार कैसे हुआ! खोटू-मोटू के पापा भी खुश हैं तथा मम्मी भी उतनी ही खुश, लेकिन हैरत में सभी हैं कि यह परिवर्तन आया कैसे? खेल ही खेल में सब कुछ सीख जाने का राज़ क्या है?

छोटू मोटू और खोटू के मम्मी पापा और मास्टर तो इस बात पर ताज्जुब कर रहे थे कि पढ़ाई में बिना किसी खिंचाई के बिना किसी सजा के वे इतने तेज कैसे हो गए? उनके लिए यह समझना मुश्किल था कि सीखने में आजादी के भी कुछ अर्थ होते हैं। लंबी सरकारी नौकरियों ने मास्टरों और माँ-बापों से आजादी का अहसास ही छीन लिया था। उनकी समझ से हर काम केवल हुक्म और ताकत संभव था। सीखने के सहज स्वभाव को वे भूल गए थे। इसीलिए छोटू मोटू की आजाद शिक्षा पर उनको ताज्जुब हो रहा था।

मगर खोटू मोटू और उनकी पूरी मंडली केवल एक तरफ़ ही तेज नहीं हुई थी। शैतानी और कारस्तानी का स्तर भी कुछ ऊंचा हो गया था। इस तरफ़ भी इस मंडली का दिमाग पूरी तरह से दौड़ने लगा था। जब सब लोग ताज्जुब कर रहे थे, तभी इस मंडली ने एक नया चमत्कार दिखाने का फैसला किया।.

सबने मिलकर यह सलाह की कि मास्टरों की रेत घड़ियों के बल्ब में छेद कर दिए जाएँ। फ़ैसला होने के बाद देर कैसे हो सकती थी। सारी पलटन फ़ैसले फटाफट लागू किया करती थी।

फ़ैसला लागू किया गया। स्टाफ रूम में रखी रेत घड़ियों के बल्बों में छेद कर दिए गए। मास्टरों ने घड़ियाँ उठाई, क्लास में चल दिए। घड़ियाँ उलट दीं. भाषण शुरू किया। नत्तर बीच में घड़ों पर गई, तो बल्ब खाली थे। रेत गायब थी। समय फिर नदारद था। सारी क्लासें एक साथ ठहाके से गूंज उठी थीं। मास्टर लोगों को समझते देर नहीं लगी थी कि शरारत किसकी है।

शरारत काफ़ी बड़ी थी। लेकिन सभी शांत थे। किसी ने किसी की पेशी नहीं बुलाई थी किसी को सत्ता नहीं मिली थी। जब से घड़ियाँ बंद हुई हैं, इस स्कूल में सबका गुस्सा गायब हो गया है। स्कूल शांत रहने लगा है। सहनशील बन गया है। मास्टर लोग उतने ही प्रसन्न हैं, जितने खोटू मोटू व उनकी पलटन ।

घड़ियों की हड़ताल के सभी भाग यहाँ देखें !

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