-( रमेश थानवी ) Ramesh Thanvi
Hindi Sahitya me Khaniyon ka Bada mehhatav hai , hindi kahaniyaan bachhon ke mansik vikas ke liye ek unnat or jacha parkha madhyam hai,Yahan Par hmare dwara देश में प्रौढ़ शिक्षा का अलख जगाने वालों में अग्रणी, साहित्य और दर्शन के अध्येता, एक दौर के प्रतिष्ठित साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ की टीम के सदस्य और राज. प्रौढ़ शिक्षण समिति के अध्यक्ष रहे “श्री रमेश थानवी” ki ek kahani “घड़ियों की हड़ताल (Chapter-3)” prastut ki gayi hai jo prathmik istar ke bachhon ke liye upyukt hai . Yahan par har kahani ka likhit evam maukhik sansakran uplabdh hai , jisse har ek bacchon ko kahani padhne evam samjhne me asani ho or kahani ka anand liya ja sake.
अध्याय 3
घड़ीसाजों की राष्ट्रीय कमेटी की बैठक चल रही थी। सगतपुर के घड़ीसाज का सवाल सामने रंगी दीवार घड़ी के पेंडुलम पर चढ़ बैठा था। एक बार तो हड़ताली पेंडुलम भी हिल उठा था। सवाल हवा में फिर कौंध गया था-
“जिम्मेदार लोग जनता के दुःख-सुख के साथ कैसे जुड़ें?’
कमेटी के सरकारी मेंबर भी इन सवालों से जुड़ गए लगते थे। सबके चेहरों पर खिसियाहट छलकने लगी थी। इसी खिसियाहट को छिपाने के लिए सभा की कार्रवाई आगे बढ़ा दी गई थी। सगतपुर, बुढे घड़ीसाज का बयान दर्ज हुआ, तो खैरागढ़ के घड़ीसाज की बारी आई। उसे बुलाया गया।
खैरागढ़ का घड़ीसाज नवाब साहब का खास घड़ीसाज है। नवाब साहब से ही उसे इतना पैसा मिल जाता है कि उसका और उसके छोटे परिवार का खर्च चल जाए। इसीलिए वह सारे शहर की घड़ियाँ मुफ्त में ठीक करता है। कभी किसी से कोई मेहनताना नहीं लेता।। हर आदमी के हाथ पर बँधी घड़ी उसे अपना हमदम मानती है। हर आदमी को उस पर पूरा भरोसा है।
कारण बहुत साफ़ है। खैरागढ़ का यह घड़ीसाज पिछले पचास वर्षो से इस शहर की घड़ियाँ सुधारता रहा है। जब भी कोई आदमी नयी घड़ी खरीदता है, इसकी राय कभी गलत नहीं जाती और यही कारण है कि इस कस्बे में कोई भी आदमी घड़ियों के मामले में आज तक कभी ठगा नहीं गया। हर हाथ पर बँधी घड़ी, हर घर में या दफ़्तर में टेंगी घड़ी हमेशा सही समय बताती है।
बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। इस घड़ीसाज का पूरा परिवार इस काम को अपना पवित्र कर्तव्य समझकर करता रहा है। घर में पत्नी तथा दो बेटे हैं। सभी मेहनती और काम के जानकार। सबने अपना काम बाँट लिया है। सभी परोपकार और पूजा की भावना से काम करते हैं। उसकी बूढ़ी पत्नी खैरागढ़ की सभी मस्जिदों तथा धर्मशालाओं की घड़ियाँ सुधारती संवारती है। बूढ़े घड़ीसाज की बूढ़ी पत्नी मंदिर-मस्जिद में कोई भेद नहीं समझती। सभी धार्मिक स्थानों को यह समान रूप से पवित्र समझती है। वह समय को धर्मनिरपेक मानती है। अपनी बात का सीधा और सरल प्रमाण उसके पास यह है कि मंदिर-मस्जिद में टंगी दो अलग-अलग घड़ियाँ एक ही समय बताती हैं, कभी कोई फर्क नहीं दिखातीं।
खैरागढ़ के घड़ीसाज के दो बेटे भी यही काम उससे बचपन से ही सीखते रहे हैं। अब वे भी बड़े आलिम हो गए हैं। अपने हुनर के मास्टर हो गए हैं। अब खैरागढ़ के सभी स्कूलों, कॉलेजों अस्पतालों, डाकखानों तथा दूसरे सभी सार्वजनिक स्थानों में टंगी घड़ियों की देखरेख का जिम्मा इनका है। अपने पिता की तरह ये भी पूरे उस्ताद हैं। इस पूरे परिवार की जबरदस्त देखरेख के कारण खैरागढ़ की सभी घड़ियों की सेहत हमेशा अच्छी रहती है। कभी कोई घड़ी खराब होने की हिम्मत नहीं करती। हालत यह है कि जब किसी घड़ी को सुधारे, साफ़ किए बहुत दिन हो जाते हैं, तो घड़ीसाज स्वयं जाकर उसे माँग लाता है तथा सफाई आदि करके वापस दे आता है। कमाल की याददाश्त है इस बूढ़े घड़ीसाज की।
लेकिन जब से घड़ियाँ रुकी हैं, उसका दिमाग चक्कर खा गया है वह सोच नहीं पाता कि जिस शहर में घड़ियों की सेहत का इतना ध्यान रखा जाता हो, वहाँ की घड़ियाँ एक साथ यूँ कैसे रुक सकती हैं?
घड़ियाँ जब से रुकी हैं, तब से ही जैसे इस पूरे परिवार पर कोई आफत टूट पड़ी है। सारा परिवार एक-एक घड़ी का एक-एक पुर्जा देखने-परखने में लगा रहा, मगर घड़ियों के बंद होने का कारण समझ में नहीं आया। घड़ीसाजों का यह पूरा परिवार भी नहीं जान सका कि सारी घड़ियाँ एक साथ क्यों रुकीं? सबकी समझ जैसे मात खा गई है, लेकिन अब भी पूरा परिवार कारण की तलाश में जुटा हुआ है।
एक दिन उस घड़ीसाज के दोनों बेटे स्कूल से दौड़े आए तथा घड़ियों के बंद होने का कारण ढूँढ लाए। घड़ीसाज को ऐसी खुशी हुई, जैसे अंधे को आँखें मिली हों।
उससे जब सरकारी अफसर ने राजधानी में घड़ियों के बंद होने का कारण पूछा था, तो वह सहमा सा बताने लगा था। उसे सरकारी पूछताछ वैसे भी अच्छी नहीं लगती थी। वह दबी जुबान में कह रहा था, “मेरी और मेरे परिवार की सेवा में कभी कोई कसर नहीं आई सरकार! हम सब तो पूरी लगन से मोहब्बत से घड़ियों की देखभाल करते रहे हैं।”
बीच में सरकारी अफसर ने कहा, “हम तुम्हारी गलती नहीं रहे हैं। हम तो समय की एकता का राज ढूंढ़ रहे हैं। हमें तो समझ है कि सारे देश की घड़ियों ने एक साथ चलना बंद क्यों किया? तुम्हें अगर समझ में आया हो तो बताओ।” सरकारी अफसर ने कड़ककर पूछा था। घड़ीसाज बता रहा है, “कारण तो मैं खुद ढूँढ़ रहा था. सरकार! मैं भी उतना ही हैरान था, लेकिन अब जो कारण मेरे दो छोटे-छोटे लड़कों ने अपनी छोटी बुद्धि से खोज निकाला है, वह सरकार की बड़ी समझ से बाहर की चीज है। न पूछें तो ही अच्छा है।”
सरकारी अफसर ने सामंती रौब से कहा, “तुम बताओ, तुम्हे, सभी कुछ माफ है।” खैरागढ़ के अनुभवी घड़ीसाज को सरकारी अफ़सर का यह ‘तुम हम अच्छा नहीं लगा, लेकिन वह करता भी क्या? वह बता रहा था-
‘साहब! घड़ियाँ तो आदमी ने बनाई हैं। अपनी सुविधा के लिए बनाई हैं। आज ऑटोमैटिक घड़ियाँ भी चल पड़ी हैं और इलेक्ट्रॉनिक घड़ियाँ भी। लेकिन कोई जमाना था, जब या तो धूप घड़ियाँ थीं या रेत-घड़ियाँ जो भी हो, आदमी को समय के अंदाज की जरूरत थी। सिर्फ़ अंदाज की ही नहीं सरकार उसे समय की कीमत पहचानने की जरूरत थी। उसको समय के सही उपयोग की जरूरत थी और उसने अपनी सुविधा के लिए घड़ियाँ बना ली। घड़ियों का काम उसकी सुविधा के लिए उसे सहयोग देना था, लेकिन… लेकिन बात कुछ बिगड़ती जा रही है सरकार मेरे दो छोटे लड़के बता रहे थे कि खैरागढ़ के सारे स्कूलों की घड़ियों पीछे रहा करती हैं। वे स्कूलों की घड़ियों पर हमेशा अपनी नजर रखते रहे हैं। उन्होंने देखा है ये घड़ियाँ तभी पीछे रहती हैं, जब किसी बच्चे को सजा मिलती है। वे बताते हैं कि सभी स्कूलों में जरा भी देर से आनेवाले लड़कों की लाइन अलग लगा करती है। यह लेटलतीफ़ों की लाइन कहलाती है। जब तक प्रार्थना होती है, तब तक मास्टरों की आँखें इन लेटलतीफों की खबर लेने को तकती रहती है। बच्चों को नफरत से देखती ये आँखें सिर्फ़ उस अवसर का इंतज़ार करती हैं, जो बच्चों को सजा देने के लिए होता है। प्रार्थना के बाद इन ‘लेटलतीफ़ों’ को जितने मिनट की देर हो, उत्तने मिनट क्लास से बाहर खड़ा किया जाता है। तब तक स्कूल की सभी घड़ियाँ रुकी रहती हैं। इसके अलावा भी जब- जब इन मासूम बच्चों को कोई भी सजा दी जाती है, तब-तब घड़ियाँ ठिठककर रुक जाती हैं। आपको यह जानकर हैरत होगी कि यह सिलसिला एक अर्से से चलता रहा है, मगर अब लगता है कि यह सब घड़ियों की बरदाश्त करने की ताकत से बाहर की बात हो गई है। इसीलिए वे ठहर गई हैं। सजा और समय का मेल घड़ियों को मंजूर नहीं लगता। फिर सजा भी मासूम बच्चों को! घड़ियाँ इसे नहीं सह सकी हैं।”
खैरागढ़ का घड़ीसाज एक लंबी साँस लेकर रुक गया था। उसने पानी पीना चाहा था। उसे पान की भी तलब हो आई थी। सरकारी दफ़्तर का चपरासी दौड़कर पानी लाया था। दूसरा चपरासी पान लेने दौड़ा था। पानी पीकर खैरागढ़ के घड़ीसाज ने अपनी बात आगे बढ़ाई। यह कह रहा था-
” घड़ियाँ बच्चों पर यूँ सवार हो जाएँगी ऐसा किसने सोचा था सरकार? बच्चे भी अगर फ़ौजी आदमी की तरह पाबंद हो जाएँगे बच्चे क्यों कहलाएँगे? बच्चे केवल बच्चे ही बने रहें. इसके लिए तो उनको समय के इस आतंक से बचाना ही होगा सरकार! ऐसा भी किसने सोचा था कि समय बच्चों पर यूँ सवार हो जाएगा और सारी दुनिया की कच्ची पौध समय से इस तरह डरती रहेगी? यह बात तो सरकार आपके ध्यान में आनी चाहिए थी, लेकिन जब ऐसा होता ही न दिखा तो घड़ियों ने खुद ही फैसला किया। घड़ियों ने अब सारे बच्चों की हँसी-खुशी के लिए न चलने का फ़ैसला किया है। वे तब तक नहीं चलेंगी, जब तक कि फ़ौजी कानून स्कूलों से नहीं हटा लिए जाएँगे, बच्चों पर समय को इस कदर क्रूरता से सवार नहीं होने दिया जाएगा। अब आप ही बताइए सरकार ! ऐसी बात कैसे समझ, आएगी आप सबको? कैसे बदलेंगे आप अपना रुख ?”
खैरागढ़ के घड़ीसाज का सवाल एक लंबी सिफारिश के साथ एक बड़ी कमेटी में पूछे जाने के लिए भेज दिया गया था। उसका सारा बयान एक अफ़सर ने दर्ज किया था। उस बयान का मोटा मुद्दा उसने पढ़कर सुनाया था-
‘खैरागढ़ के सभी स्कूलों में देर से आनेवाले बच्चों को सजा मिलती थी। देर एक मिनट हुई है या ज्यादा, यह कुछ नहीं देखा जाता था। खैरागढ़ की घड़ियाँ मानती हैं कि समय को बच्चों के सिर पर सवार नहीं होना चाहिए। घड़ियाँ यह भी मानती हैं कि जब तक बच्चों को ऐसी क्रूरता से बचा नहीं लिया जाता, तब तक समय का हिसाब रखना बेकार है। खैरागढ़ की घड़ियों ने फ़ैसला किया है कि जब तक बच्चों की मुस्कान नहीं लौटाई जाती, तब तक घड़ियाँ बंद रहेंगी।’
खैरागढ़ की घड़ियों का फ़ैसला सुनकर सभी सरकारी अफसर चकित थे। उन्होंने तुरंत शिक्षा मंत्रालय के नाम एक चिट्ठी भेजी कि घड़ियों के फ़ैसले पर विचार करने के लिए देश के नामी शिक्षाविदों को बुलाया जाए, एक कमेटी फिर बैठाई जाए और बच्चों पर समय की पाबंदी लागू करने की बात पर फिर से विचार किया जाए।
घड़ियों की हड़ताल के सभी भाग यहाँ देखें !
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