तेनाली राम ने कालीदेवी का वरदान प्राप्त किया।
उसके मन में बार-बार यह बात उठने लगी कि विजय नगर के राज दरबार में उसे स्थान मिलेगा।
देवी के वचन कभी असत्य नहीं हो सकते।
तेनालीराम का उचित समय पर विवाह हुआ, एक पुत्र भी पैदा हुआ ।
वह अपनी माँ और पत्नी को साथ लेकर एक अच्छे मुहूर्त में विजय नगर के लिए रवाना हुआ।
तेनालीराम की यात्रा
चार महीने तक लंबी यात्रा तय करके विजय नगर पहुँचा। वहां पर सपरिवार एक सराय में ठहरा।
एक दिन तेनालीराम की एक ब्राह्मण से भेंट हुई। उस ब्राह्मण ने तेनालीराम की इच्छा जानकर उपाय बताया-
“अगर तुम राज पुरोहित और राजगुरु ताताचार्य को प्रसन्न कर सकोगे तो तुमको राजा के दर्शन आसानी से मिल जाएंगे ।”
तेनालीराम रोज प्रातः काल ताताचार्य के भवन के पास पहुँचता, लेकिन द्वारपाल भीतर जाता, लौटकर यही जवाब देता कि राजगुरु ने आपको कल बुलाया है।
इस तरह एक महीना बीता, पर ताताचार्य के दर्शन न हुए।
आखिर राम ने सोचा कि अब छल-कपट से ही वह राजगुरु के दर्शन करेगा ।
एक दिन ताताचार्य के घर पर कोई मांगलिक कार्य हो रहा था।
ताताचार्य के रिश्तेदार सब वैष्णवों की पोशाक पहने भीतर जा रहे थे।
तेनालीराम ने भी अपना वेश बदलकर तेनालीराम के नाम से ही भीतर प्रवेश किया।
ताताचार्य ने उसे देखते ही समझ लिया कि वह उसका रिश्तेदार नहीं है, इसलिए उसने द्वारपाल को बुलाकर डांटा कि इसको कैसे भीतर आने दिया ?
तब तेनालीराम ने ताताचार्य से निवेदन किया “गुरुदेव मैं आपके दर्शन के वास्ते सपरिवार पैदल चलकर इस नगर में आया हूँ।
एक महीने से मुझे द्वारपाल आपके दर्शन करने नहीं दे रहा है।
आपके शिष्य बनने के विचार से वैष्णवमत के नियमानुसार मैंने अपना नाम रामलिंग से रामकृष्ण बदल लिया है।
मैं अच्छी तरह से कविता कर सकता हूँ इस दास को सम्राट के दर्शन कराकर दरबारी कवियों में मुझे भी स्थान दिलाइये।”
तेनालीराम का बदला
तेनालीराम की प्रार्थना पर ताताचार्य का दिल पिघल गया। उन्होंने वचन दिया कि उसे अपना शिष्य बनाकर सम्राट के दर्शन भी करायेगा और राजदरवार का कवि भी बनवायेगा ।
फिर एक महीना बीत गया। ताताचार्य उसे टालता रहा। तेनालीराम ने सोचा कि यह राजगुरु ऐसे ही बहाने बनाता रहेगा।
इसी बहाने अपनी सेवा मुझसे कराता रहता है।
यह अब सीधी तरह मुझे राजदरबार में नहीं ले जायेगा, इसलिए इसके साथ कोई और उपाय ही काम में लाना चाहिए, जिससे मैं राजदरबार में पहुँच जाऊं और इसे भी सबक मिले ।
तेनालीराम ताताचार्य के इस व्यवहार का बदला लेने के लिए सोच विचार करने लगा।
एक दिन ताताचार्य नदी पर नहाने के लिए पहुँचे। किसी को वहाँ न देख उन्होंने सभी कपड़े उतारे और नंगें नहाने लगे।
ताताचार्य ने जैसे ही डुबकी लगाई, मौका पाकर तेनालीराम ने घाट पर रखे उनके कपड़े छिपा दिये।
वैष्णव गुरु को नंगे नहाना उन दिनों में मना था।
तेनालीराम यह बात सब पर प्रकट करेगा तो राजगुरु की प्रतिष्ठा जाती रहेगी।
‘यह सोचकर तेनालीराम से राजगुरु गिड़गिड़ाने लगे। – “बेटा तुम मेरे शिष्य हो। मैं कई तरह से तुम्हारी सहायता करने वाला हूँ। यह बात कहीं प्रकट न करो। जो भी मांगो, मैं करने को तैयार हूँ।”
तेनालीराम की इच्छा
इस पर तेनालीराम ने खूब सोच-समझकर कहा- “गुरुवर, मुझे गलत न समझिये अगर आप इस बात को गुप्त रहने देना चाहते हैं तो मेरी एक शर्त है, आप मुझे अपने कंधे पर बिठाकर मेरे निवास स्थान तक पहुँचा दीजिए ।
राजगुरु ने सोचा- तेनालीराम के कहे मुताबिक न करेगा तो उसकी भूल प्रकट हो जायेगी सम्राट और दरबारियों की दृष्टि में वह गिर जाएगा।
मैंने इसको राज दर्शन कराने में विलम्ब किया, इसलिए वह मुझसे बदला लेना चाहता है।
चाहे जो भी हो, इसे अपने कंधे पर बिठाकर उसके घर तक पहुँचा दूँगा।
अंधेरा भी होने जा रहा है। कौन देखेगा ?
यह सोचकर राजगुरु ने कहा तेनालीराम, आओ, मेरे कंधों पर बैठ जाओ ।”
राजगुरु तेनालीराम को अपने कंधे पर बिठाये इस अपमान से गढ़ते हुए सर झुकाये राज-पथ से होकर जाने लगा। |
नगर के लोग इस विचित्र कार्य को आश्चर्य के साथ देखते कानाफूसी करने लगे।
तेनालीराम बड़े दर्प के साथ चारों तरफ अपनी दृष्टि दौड़ाये गर्व का अनुभव करने लगा।
संयोग की बात थी कि जब ताताचार्य राज महल से होकर गुजर रहा. था, ठीक उसी समय सम्राट तेनालीराम राय सभा विसर्जित कर राजमहल में जा रहे थे।
दूर से ही उन्होंने राजगुरु को पहचान लिया।
क्रोध से उन्होंने राजभटों को आदेश दिया।
उस आदमी के कंधे पर बैठे हुए व्यक्ति को बंदी बनाकर राजदरवार में ले आओ।
यह कहकर सम्राट वापस दरबार में चले गये।
तेनालीराम की चालाकी
तेनालीराम ने भांप लिया कि सम्राट ने उसे देख लिया है।
इसलिए उसे दण्ड मिलेगा यह सोचकर बचने के ख्याल से राजगुरु से बोला – गुरुजी ! मेरी अक्ल चरने गई थी।
मैंने आपके साथ अन्याय किया है। थोड़ी दूर तक आपको ढोकर मैं अपनी करनी का प्रायश्चित करूँगा ।
इसलिए कृपया अ आप मेरे कंधे पर बैठ जाइए।”
राजगुरु तेनालीराम के कंधे पर सवार हो गए।
थोड़ी दूर ही वे आगे बढ़े थे कि इतने में राजभटों ने आकर उस वृद्ध को नीचे खींच लिया और कोड़ों से मारते दरबार में ले जाकर सम्राट के सामने उनको खड़ा कर दिया।
आचार्य को अपने सामने देख सम्राट को बड़ा दुख हुआ ।
उन्होंने कहा- “गुरुदेव मुझे क्षमा कीजिए।
किसी दुष्ट को आपके कंधे पर बैठे देख उसे दण्ड देने के विचार से मैंने भटों को उसे पकड़ लाने का आदेश दिया था।
मैंने भूल नहीं की, लेकिन मुझे आश्चर्य है कि भट आपको क्यों पकड़ कर लाये।”
इस पर राजगुरु ने समझाया- “वत्स, इस नगर में कोई दुष्ट आया हुआ है।
वह बड़ा मायावी है। मुझसे बदला लेने के ख्याल से उसने यह षड्यंत्र रचा है।
” इसके बाद ताताचार्य ने उसकी कुचेष्टाओं का परिचय दिया।
सम्राट ने राजगुरु से क्षमा मांगकर उनको घर भेजते हुए कहा- उस दुष्ट को मैं कठिन दण्ड दूँगा ।”
ताताचार्य मन ही पछताते हुए अपने घर पर लौटे।
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