-( रमेश थानवी ) Ramesh Thanvi
Hindi Sahitya me Khaniyon ka Bada mehhatav hai , hindi kahaniyaan bachhon ke mansik vikas ke liye ek unnat or jacha parkha madhyam hai,Yahan Par hmare dwara देश में प्रौढ़ शिक्षा का अलख जगाने वालों में अग्रणी, साहित्य और दर्शन के अध्येता, एक दौर के प्रतिष्ठित साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ की टीम के सदस्य और राज. प्रौढ़ शिक्षण समिति के अध्यक्ष रहे “श्री रमेश थानवी” ki ek kahani “घड़ियों की हड़ताल (Chapter-4)” prastut ki gayi hai jo prathmik istar ke bachhon ke liye upyukt hai . Yahan par har kahani ka likhit evam maukhik sansakran uplabdh hai , jisse har ek bacchon ko kahani padhne evam samjhne me asani ho or kahani ka anand liya ja sake.
अध्याय 4
सरकारी दफ़्तर में घड़ीसाजों के बयान चल रहे थे। घड़ियों की हड़ताल का कारण समझनेवाली राष्ट्रीय कमेटी की मीटिंग दिन-ब-दिन आगे खिसकती जा रही थी। घड़ीसाजों के लंबे बयान नई-नई बातें उभार रहे थे। बयानों से सामने आई बातें चौंकाती थीं। सबके कान खड़े करती थीं। सरकारी अफ़सर सिर खुजाने लगे थे। अभी तक सामने आए बयानों से साफ़ था कि घड़ियों की यह हड्ताल किसी समझौते से नहीं टूटेगी।
सगतपुर और खैरागढ़ के घड़ीसाजों का बयान हो जाने के बाद एक ऊँचे सरकारी अफसर ने कहा था- “यह मामला काफ़ी बढ़ गया है। अब यह मामूली मामला नहीं रहा है।” तब तक दूसरा अफ़सर बोला था ” यह दरअसल बहुत बुनियादी सिद्धांतों का मामला बन गया है। जहाँ सिद्धांत आड़े आते हों, वहाँ ऊपरी उठापटक से कोई संगठन नहीं फोड़ा जा सकता। हम लोगों को अपनी नीति में कोई बुनियादी फेरबदल करना होगा। तभी समय की ऐसी एकता का रहस्य हम समझ सकेंगे।” यह सुनकर तीसरा अफ़सर पूछने लगा था-“मुझे तो यही समझ में नहीं आता कि घड़ी के दिमाग में ऐसा कौन-सा पुर्जा होता है, जो इस तरह आदमी के दिमाग की तरह सोच-समझ सकता है।’
“घड़ियों के दिमाग का ही अगर पता लग जाए, तो फिर समस्या ही क्या है उसे ही निकलवा फेंकेंगे।” एक अफसर का कहना था। “लेकिन उस दिमाग का पता लगा लेने के लिए भी तो दिमाग की जरूरत है। वह कहाँ से लाएँगे आप?” सबसे बड़े अफसर ने पूछा था। बड़े साहब के सवाल ने सबको चुप कर दिया था। सेक्रेटरी ने सवाल किया था- “साब। तीसरा नंबर बजबज के घड़ीसाज का है, उसे बुलाऊँ क्या?”
हुक्म होते ही बजबज का घड़ीसाज अंदर आ पहुँचा था। बजबज कलकत्ता के पास ही एक छोटा शहर है। लेकिन वहाँ से आया यह बंगाली बाबू बंगाल की रंग-रंग को जानता है। उसने बंगाल में चल रहे सेठों के कई कारोबारों में काम किया है। वह चकित है कि सेठों के इन दफ्तरों का हर अफसर कसकर काम लेने और कम-से-कम पैसा देने में उस्ताद है।
बजबज का यह बंगाली बाबू भी ऐसे ही एक दफ्तर में काम करता है। इसके दफ्तर में एक बाबू खास ड्यूटी पर बैठता है। यह बाबू सीधे बड़े साब का आदमी है। जरूरी काम यानी खास ड्यूटी के नाम पर इतना सा काम कि एक रंगीन डायरी में रोज हर आदमी के दफ्तर पहुंचने का सही समय दर्ज किया करे। बजबज के सारे दफ्तरों में ऐसे काम के लिए कुछ खास आदमी तैनात हैं। साहब लोगों के ये मुस्तैद सिपाही अपनी ड्यूटी लगन से पूरी करते साहब लोगों की खुशी के वास्ते ।
बजबज से आया यह बंगाली बाबू पेशे से बाबू है. मगर हुनर से घड़ीसाज। काम का पूरा कारीगर है, मगर इसने कसम खा रखी है कि हाथ के हुनर को कभी बेचेगा नहीं। वह गरीब घर में जन्मा -पला है, और अपने परिवार की सारी पीड़ाओं के लिए सेठों व सूदखोरों की दोषी मानता है। इसलिए उसने यह भी कसम खा रखी है कि कभी किसी सेठ या सूदखोर की घड़ी नहीं सुधारेगा। वह सिर्फ मजदूरों की और अपने साथ के लोगों की घड़ियाँ सुधारता है, मुफ्त में सुधारता है। घड़ियों की हड़ताल का कारण खोजता हुआ वह कई बातें सोचता रहा है। अपना बयान शुरू करते हुए वह कहता है, “यह मामला मशीनरी नहीं है। यह एक पॉलिटीकल मामला बन गया है साब बंगाली साहब लोगों के लिए किसी की घड़ी कोई मतलब नहीं रखती। वे सबकी घड़ियों के ऊपर एक सिपाही बैठाते हैं। एक अफ़सर अपॉइंट करते हैं। घड़ियों पर अफसरी का मामला बहुत- सीरियस है साब!”
बंगाली बाबू ऐसी चेतावनी के साथ ही सारा हाल कह सुनाता है। वह बंगाल के दफ्तरों के बाबू लोगों की हालत बयान करता है। साफ दिखाता है कि मामूली आदमी का समय कितना सस्ता है और साहब का समय कितना महँगा । वह यह भी शिकायत करता है कि जब एक मामूली कर्मचारी काम के बोझ से दबा रात काली करता रहता है, तब उसका साब उसी समय ऐश में डूबा होता है। यह काम में हाथ बँटाना तक ठीक नहीं समझता। बयान दर्ज हो जाने पर बंगाली बाबू की बात के भी असली मुद्दे पढ़कर सुनाए जाते हैं। बयान लिखा गया है-
‘पूरे बंगाल में व्यापारी दफ़्तरों के अफ़सर अपने भरोसे के लिए टाइमकीपिंग बाबू रखते हैं। यह बाबू साहब की घड़ी के हिसाब से और कुछ अपने मनमाने तरीके से लोगों के आने का व जाने का समय दर्ज करता है। फिर इसी हिसाब से लोगों की तनख्वाह बनती हैं। घड़ियाँ इसे अपने प्रति अविश्वास मानती हैं। वे यह भी मानती हैं कि समय इतना सस्ता नहीं होता है कि उसे आदमी के खिलाफ खड़ा कर दिया जाए। घड़ियों का कहना है कि घड़ियाँ आदमी को चलाने के लिए नहीं चलती हैं। घड़ियाँ इसे अपना अपमान समझती है कि समय की बात को आदमी की पीड़ा और परेशानी से ज्यादा महत्त्व दिया जाता है। बंगाल की घड़ियों ने एक राय से यह तय किया है कि जब तक समय को आदमी के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता रहेगा, तब तक घड़ियाँ बंद रहेंगी।’
बजबज के बंगाली बाबू का यह बयान एक विशेष हरकारे के साथ बंगाल के मुख्यमंत्री को भेज दिया गया। साथ में यह सुझाव भी कि तुरंत स्थिति की जाँच जरूरी है।
घड़ियों की हड़ताल का कारण पता करनेवाली कमेटी की कार्रवाई चल रही थी। घड़ीसाजों के बयान दर्ज हो रहे थे। समय बीतता जा रहा था. परंतु कोई नहीं जानता था कि कितना बीता। लोग सिर्फ़ दिन गिनते थे। सूर्य के उदय होने और अस्त होने का इंतजार करते थे। ऐसा लगता था कि लोग घंटों की पहचान को भूलकर सिर्फ दिन व रात की पहचान से जुड़ गए हैं। दिन-रात की यह पहचान शहरी सेठों व अफसरों के लिए नयी पहचान थी, जिन्हें पहले कभी दिन-रात की परवाह भी नहीं रहती थी वे अब सुर्योदय की प्रतीक्षा करने लगे थे। सूरज से लोगों का रिश्ता एक नयी अमाद बंधाता था, लेकिन लगता था कि घड़ियाँ अभी भी निराश हैं। अभी भी उदास हैं। घड़ियों की हड़ताल अभी भी जारी थी।
इस लंबी हड़ताल में मौज मनानेवाले छोटू मोटू और खोटू को मंडली अब करवट बदलने लगी थी। सबकी सेहत सुधरने लगी थी। सबके चेहरे चमकने लगे थे। सबकी आदतें बदलने लगी थीं। बच्चों की बदली आदतों ने बच्चों के माँ-बाप को भी सोचने पर विवश कर दिया था। वे बच्चों की आजादी के अर्थ समझने लगे थे। उन्हें समझ मैं आ गया था कि आरोपित पाबंदी बुरी होती है. लेकिन उन्होंने देखा था कि बच्चे खुद अब अपने खेल तथा काम के समय को बाँटने लगे हैं। उसका पूरा उपयोग करने लगे हैं। यह बदलाव माँ-बाप को अच्छा लगा था। आदतों में ऐसा सुधार आने के साथ ही छोटू मोटू की सारी मंडली कुछ नए सवालों पर सोचने लगी थी। ये सवाल समय बड़ा या कागज ? समय बड़ा या आदमी ? समय आदमी के वास्ते या आदमी समय के वास्ते? ये सारे सवाल समय को आदमी के खिलाफ खड़ा करने से जुड़े थे। बच्चे जैसे बड़े हो गए थे।
ऐसे सवालों पर छोटी-छोटी बहसे इस मंडली में शुरू हो गई थी। सभी बच्चों के पिता अब प्रसन्न थे उनको लगने लगा था कि ब अब सोचने-विचारने लगे हैं। माता-पिताओं और तमाम अभिभावकों ने अब जाकर महसूस किया था कि असली शिक्षा कब और कहाँ शुरू होती है।
घड़ियों की हड़ताल के सभी भाग यहाँ देखें !
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