-( रमेश थानवी ) Ramesh Thanvi
Hindi Sahitya me Khaniyon ka Bada mehhatav hai , hindi kahaniyaan bachhon ke mansik vikas ke liye ek unnat or jacha parkha madhyam hai,Yahan Par hmare dwara देश में प्रौढ़ शिक्षा का अलख जगाने वालों में अग्रणी, साहित्य और दर्शन के अध्येता, एक दौर के प्रतिष्ठित साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ की टीम के सदस्य और राज. प्रौढ़ शिक्षण समिति के अध्यक्ष रहे “श्री रमेश थानवी” ki ek kahani “घड़ियों की हड़ताल (Chapter-1)। GHADIYON KI HADTAL” prastut ki gayi hai jo prathmik istar ke bachhon ke liye upyukt hai . Yahan par har kahani ka likhit evam maukhik sansakran uplabdh hai , jisse har ek bacchon ko kahani padhne evam samjhne me asani ho or kahani ka anand liya ja sake.
अध्याय 1
शहर में हड़ताल का मौसम था। रेलवालों ने रेलें चलानी बंद कर दी थीं। हजारों मुसाफिर प्लेटफार्म पर अटके पड़े थे। हर दूसरे पल वे एक दूसरे से पूछते थे “हड़ताल खुली क्या?” एक हड़ताल खुलने का नाम नहीं लेती थी कि उससे पहले ही दूसरी हड़ताल का नोटिस आ जाता था।
रेलों के बाद सफाई कर्मचारियों का नंबर था। सारे सफाईवाल हड़ताल पर थे। हर गली कूचे में कूड़े के ढेर लगे थे। चारों तरफ बदबू फैली थी। मक्खियों की मौज थी। नालों और गटरों के रुक जाने से मच्छरों को मौका मिल गया था। बीमारियाँ भी शहर पर धावा बोल चुकी थीं। अस्पतालों में मरीजों की लाइनें लंबी होने लगी थी। डॉक्टरों ने मिलकर सलाह की कि मौका अच्छा है। हर आदमी हर तरफ़ जैसे अपनी बात मनवाने की ताक में बैठा था। सभी डॉक्टरों की एक राय श्री कि मौका न चूका जाए। डॉक्टर भी हड़ताल पर चल दिए ।
चारों तरफ कोहराम मचा हुआ था। बीमारी से मौतें हुई थीं। सारा शहर दुर्गंध से भरा हुआ था। परेशान अफसर और मिनिस्टर मीटिंगों में बैठे कोई रास्ता खोज रहे थे।
इधर एक चमत्कार हुआ। खरबूजे को देखकर खरबूजे ने रंग बदला। हड़ताल का मौसम पूरे जोश खरोश से आ पहुँचा था, इसलिए शहर की सारी घड़ियों ने भी आपस में राय मिलाई सबका मत था कि उनको समय के साथ चलना चाहिए। राय मिल जाने के बाद देर कैसे हो सकती थी। सारे शहर की घड़ियाँ हड़ताल पर चली गई। समय जहाँ था. वहीं ठहर गया।
जो मिनिस्टर लोग मीटिंगों में बैठे थे, वहीं बैठे रह गए। एक-दूसरे से समय पूछने लगे तो सबने पाया कि सबकी घड़ियाँ रुकी पड़ी हैं। तुरंत दरबान बुलाए गए। सही समय की तलाश में दौड़ाए गए ‘सही समय’ लेकिन सबके हाथ से निकल गया था। दरवान भी निराश होकर लौटे। सबने आकर खबर दी कि सबकी घड़ियाँ ठहरी खड़ी हैं।
हुक्म हुआ कि घड़ीसाज बुलाए जाएँ। सरकारी हुक्म सरपट दौड़ा। घड़ीसाज दौड़ आए। खबर लाए कि उनके यहाँ भी सारी घड़ियाँ रुकी हुई हैं। शहर के नामी घड़ीसाज ने घंटाघर के टॉवर पर चढ़कर पेंडुलम हिलाया-धूप के अंदाज से सूई मिलाई और गर्दन ऊँची किए देखता रहा कि सूई आगे सरकती है क्या। सूई जहाँ की तहाँ डटी थी। जरा भी सरकने का नाम न लेती थी।
इधर समय ठहर गया था, उधर फैसले ठहर गए थे। मंत्री महोदय एक से दूसरी सभा तक नहीं पहुँच सके। समय के साथ समाएँ क गई। सभाओं के साथ सफाई कर्मचारियों, डॉक्टरों और रेल चलाने वालों की किस्मत जुड़ी थी, वह भी वहीं ठहर गई।
शहर की घड़ियाँ ठहरी खड़ी थीं। कर्मचारियों की किस्मत रुकी पड़ी थी। मगर गली-कूचों में बच्चों की किलकारियाँ छूट पड़ी थीं। सभी बच्चे खुश थे। सबके चेहरे चमक रहे थे। सब अपनी खुशी बाँ रहे थे। मोटू कह रहा था-
‘या! अपनी तो किस्मत चमक गई। आज दोपहर तक सोते रहे किसी ने कान नहीं उमेठा। किसी को हमें जगाने की नहीं सूझी। सोने की ऐसी मौज मिल जाए तो फिर क्या।” मोटू अपने सोए रहने की बात बड़ी शेखी से सुना रहा था, मगर मन ही मन घड़ियों को दाद दे रहा था। सोच रहा था, घड़ियाँ ऐसे ही रुकी रहें और अपनी सलामत रहे।
मोटू का दूसरा भाई था, खोटू। उसे खेलने का खूब शौक था। वह भी जब से घड़ियाँ ठहर गई हैं, तब से घंटों खेलता रहा है। किसी को उसे बुलाने की नहीं सूझती। वह भी अपनी खुशी में लोट-पोट हो रहा था और हाँफता हुआ बता रहा था-
“देख देख अपनी क्या लाइफ़ बनी है। मजे से खेल जमा रहे हैं। न मम्मी की आवाज बुलाती है और न स्कूल की घंटी घड़ियाँ खुद तो चुप हुई हीं, अच्छों-अच्छों को भी चुप कर दिया।’
अबे, ज्यादा शान मत मारा। खेलने का मौका मिल गया तो अब अपनी ही होंके जा रहा है।” खोटू का एक दोस्त कह रहा था।
“देख दोस्त! अपन फ़ालतू में नहीं हाँकते हैं कुछ ऐसा खेल जमता ॥ रहा ना, तो चार दिन बाद अपनी सेहत भी देख लेना। फिर भी लगे कि केवल अपनी ही हाँक रहे हैं, तो कुश्ती में उतरकर देख लेना। “
कुश्ती का चैलेंज सामने आते ही खोटू का दोस्त दुबक गया था। मित्रों की यह मंडली फिर खेलने में मस्त हो गई थी। खोटू के और भी बहुत सारे दोस्त ऐसे थे, जिनको स्कूल की घंटी से चिढ़ थी। वे सब एक जगह आ मिले। सब मिलकर हनुमान जी को नारियल चढ़ाने की योजना बना रहे थे। मनौती मना लेना चाहते थे कि घड़ियाँ रुकी रहें, घंटियाँ न बजे यह मंडली घंटी के बजने से इसलिए परेशान थी कि घटी खेल के रंग में भंग डालती थी। फिर जब घंटी की चोट सुनाई देती थी. तो उन्हें मास्टर जी की डाँट याद आ जाती थी घड़ी की सूई और मास्टर जो की डाँट-डपट में कोई निकट का रिश्ता था। सूई समय से जितनी आगे खिसकती थी. डाँट उतनी ही जोर से पड़ती थी। छोटे-बड़े सभी बच्चे मास्टर जी के गुस्से और उनकी इस डॉट से इरने लगे थे। डाँट का डर इस मंडली पर भी ऐसा सवार हो गया था कि स्कूल से दूर भागना ही सबने अपना अधिकार मान लिया था। सारी मंडली इस बात पर एक राय थी कि मास्टर जी अगर ज्यादा डाँटें तो पढ़ो नहीं।’
घड़ियाँ जब से रुकी हैं, तब से मोटू की नींद सलामत हो गई है और खोटू का खेल पक्का हो गया है। कहीं कोई रोक-टोक नहीं। किसी की दखल नहीं। तीसरे बच्चू बचे छोटूराम मोटू, खोटू के हो भाई। इनको छोटे-छोटे किस्से-कहानियाँ पढ़ने का शौक है। जय घड़ियाँ रुकी हैं, तब से अपने घर के एक कोने में दुबके उपन्यास, किस्से-कहानियाँ पढ़ते रहते हैं। स्कूल की तैयारी का तकाजा करना मम्मी भूल गई हैं। खूब मजे से घंटों तक एक कोने में दुबके पड़े रहते हैं। न कोई तकाजा न कोई डाँट फटकार। किसी को किसी बात की। चिंता नहीं।
हर समय ऐसा लगता है जैसे सारा घर थोड़ी देर के लिए बैठकर सुस्ता रहा है। मोटू-खोटू दोनों बाहर हैं। इसलिए कोई खटपट नहीं। समय का पता नहीं, इसलिए पापा को दफ्तर की देर का डर नहीं। नाश्ता बनाने की जल्दी न लंच बॉक्स तैयार करने की जल्दी। पाप को भी कोई डर नहीं था कि देर हुई तो साहब बिगड़ेंगे। शहर के अन्य सारे बाबू लोग भी दफ्तर की देर के डर से छुटकारा पा चुके थे। शहर शांत था। बसों का इंतजार करनेवालों की कतारें छोटी हो गई थीं। भगदड़ गायब थी।
सभी दफ्तरों, कारखानों, छोटी फैक्ट्रियों आदि का समय चूंकि ठहर गया था, इसलिए कर्मचारियों पर किसी तरह की पाबंदी नहीं रही थी। मजदूरों के कार्ड पंच करनेवाली टाइम मशीनें बंद पड़ी थीं। हज़ारों मजदूरों के कार्ड हाथ से भरने के लिए हाज़िरी बाबू भी टाइम पर नहीं पहुँच पाते थे। मिल मालिक परेशान थे। इस बार कुछ ऐसे फँसे थे कि यह भी नहीं कह सकते थे- ‘बड़ा खराब टाइम आ गया है।’ और न लंबी साँस लेकर कह सकते थे- ‘समय बड़ा बलवान जब समय ही गायब था तो दोष किसे देते !
समय यूँ गायब हुआ, तो शहर में सहसा समता का राज आ ग था। सच्चा समाजवाद आ गया था। छोटे-बड़े सभी लोग अपने दिनमान की डोर से कट गए थे। भाग्यवाद के फंदे से बच गए थे। बड़े-बड़े भाग्यवादी हेकड़ी भूल गए थे। भविष्य बेचनेवालों का कारोबार उप था। दिनमानी दुकानें बंद थीं। मीन-मेख का अंतर भी मिट गया था।
समय ठहर गया था। भविष्य की चिंता से लोग दूर थे। घटनाएँ कम हो गई थीं। खबरनवीसों की मुश्किल हो गई थी। न तो खबरें मिलती थीं और न ही किसी की खबर लेने का मौका। नतीजा यह था कि अखबार छोटे हो गए थे कागज़ की खपत कम हो गई थी। तंगी मिट गई थी। लेकिन कागज की मिलवाले चिंता में डूब गए थे। साथ ही जंगलात काटनेवाले ठेकेदार और मजदूर भी सबको कारोबार की चिंता थी।
उधर समय के यूँ गायब हो जाने से अफसरों, मैनेजरों व मिल मालिकों की हालत अजीब हो गई थी। एक बड़ी कंपनी के मैनेजर साहब को घड़ी के अलार्म से उठने की आदत थी। घड़ियाँ सब ठहरी खड़ी थीं। इसलिए बेचारों की नींद भी जाने कब टूटती थी कोई पता ही नहीं था। दूसरे कई बड़े अफ़सर जो सिर्फ अपनी टाइम की पाबंदी के कारण तरक्की पाते रहे हैं, वे भी अब भन्नाए फिरते हैं। होंठ काटते हैं, मुट्टियाँ बंद करते हैं, दाँत पीसते हैं, लेकिन घड़ियाँ बंद की बंद खड़ी हैं। साहब की टाइम की पाबंदी का रोबदाब उतर चुका है। उनको भी होश हवास नहीं है कि दफ्तर के ‘अपॉइंटमेंट’ क्या हैं कहाँ हैं!
जब से समय यूँ नदारद हुआ है सरकार उदार हो गई है। – अफ़सर उदार हो गए हैं। सबको एक दूसरे की तकलीफ़ का थोड़ा खयाल आया है। इसीलिए सभी मालिकों, अफसरों और सरकार उदार सलाह से बाकी सारी हड़ताल समाप्त हो गई है।
घड़ियों की हड़ताल मगर अटूट है। सारी घड़ियाँ ठहरी खड़ी है। सरकार को समझ नहीं आ रहा है कि समय की एकता का राज क्या है ? घड़ियों की यूनियन कहाँ है? सरकार के कड़े आदेशों के कारण सरकारी गुप्तचर विभाग पूरी छानबीन के साथ पता लगा रहा है कि घड़ियों की यूनियन का दफ्तर कहाँ है। घड़ियों की यूनियन का नेता कौन है ? बहुत छानबीन के बाद सरकार का गुप्तचर विभाग रपट करता है। स्पट में लिखा है-
‘सभी ज्ञात सूत्रों की छानबीन के बाद भी हम समय की एकता का राज नहीं जान सके हैं। अपनी सारी खोजबीन के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि घड़ियों की यूनियन अभी तक कभी नहीं बनी है। हमें मालूम हुआ है कि घड़ियों की यूनियन का दफ्तर अभी तक देश के किसी कोने में नहीं खुला है। हमारे विभाग के सभी बड़े अफ़सर समय की ऐसी अटूट एकता का रहस्य नहीं समझ पा रहे हैं।
गुप्तचर विभाग की इस रपट के बाद गृह मंत्रालय की परेशानी और भी बढ़ गई थी। सरकार लगातार बंद पड़ी घड़ियों को चालू कर की अटकल सोच रही थी पीछे छूटे समय को लौटा लाने का तरीका खोज रही थी। रात-दिन खोज रही थी।
घड़ियों की हड़ताल के सभी भाग यहाँ देखें !
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